Thursday, December 31, 2009

एक शायर

रात भर एक जिस्म था जिस पर कई ख़न्जर चले

दिन निकल आया तो हर सिम्त से पत्थर चले


अपने सब मंज़र लुटा कर शाम रुख़्सत हो गई

तुम भी वापस लौट जाओ हम भी अपने घर चले


नींद की सारी तन्नाबें टूट कर गिरती गईं

मुझ को तन्हा छोड़ कर ख़्वाबों के सब पैकर चले


क़र्ब जब तख़लीक का हद से सवा होने लगा

अपने फ़न को नामुकम्मल छोड़ कर आज़र चले


कोई सूरत हो के टूटे भी सुकूते दिल "शमीम"

यह आंधी जिस्म के बाहर है अब अंदर चले


                                                -:  शमीम फ़ारुक़ी

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सिम्त :  दिशा
तन्नाबें :  रस्सी
पैकर :  आकार
कर्ब :  वेदना
तख़लीक़ : रचना
फ़न :  कला
नामुकम्मल : अधूरा
आज़र :  पीड़ित
सुकूते दिल : दिल की शान्ति

Saturday, December 26, 2009

जिगर मुरादाबादी

निगाहों का मरकज़ बना जा रहा हूं

मुहब्बत  के  हांथों लुटा  जा रहा हूं


न जाने कहां से, न जाने किधर को

बस एक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूं


मुझे  रोक  सकता  हो  कोई  तो  रोके

कि  छुपकर  नहीं  बरमला  जा रहा हूं


                                          
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बरमला - खुल्लम खुल्ला

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-:-:-

सुन तो ए दिल यह बरहमी क्या है

आज   कुछ   दर्द   में   कमी   क्या  है


जिस्म  महदूद , रूह  ला - महदूद

फिर  यह  रफ्ते  बाहमी  क्या  है


ऎ फलक ! अब तो तुझ को दिखला दूं

ज़ोरे    बाज़ु - ए -बेकसी   क्या   है


हम  नहीं  जानते  मुहब्बत  में

रंज  क्या  चीज़  है,  ख़ुशी  क्या  है


एक नफ़स ख़ुल्द एक नफ़स दोज़ख

कोई   पूछे   ये   ज़िन्दगी   क्या  है



                                               - जिगर मुरादाबादी


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बरहमी : गुस्सा

महदूद : सीमित

ला-महदूद : असीमित

रब्ते बाहमी : आपसी संबध

नफ़स : इच्छा, चाहत

ख़ुल्द : जन्नत, स्वर्ग

दोज़ख : जहन्नम, नर्क

Tuesday, December 22, 2009

दुनिया सजी हुई है

दुनिया   सजी  हुई  है   बाज़ार   की तरह

हम  भी  चलेंगे  आज  ख़रीदार  की तरह


टूटे  हों  या  पुराने हों  अपने तो  हैं यही

ख़्वाबों को जमा करता हूं आसार  की तरह


यह  और बात  है कि  नुमाया  रहूं मगर

दुनिया  मुझे  छुपाए  है  आज़ार  की तरह


मेरी किताबे ज़ीस्त तुम एक बार तो पढ़ो

फिर  चाहे फैंक दो किसी अख़बार की तरह


अब ज़िन्दगी की धूप भी सीधा करेगी क्या

अब तक तो कज़ रहा तेरी दस्तार की तरह

                                                                            - सबा जायसी
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आसार - खंडहर

नुमाया - उजागर

आज़ार - पीढ़ा

ज़ीस्त - ज़िन्दगी

कज - टेढ़ा

दस्तार - पगड़ी

Saturday, December 19, 2009

एक ग़ज़ल

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला

वही  अंदाज़  है  ज़ालिम का ज़माने वाला


कया कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे

वो जो एक शख़्स है मुंह फैर के जाने वाला


क्या ख़बर थी जो मेरी जां में घुला रहता है

है   वही   सरे - दार  भी  लाने  वाला


मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला


तुम तक्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो "फराज़"

दोस्त होता नहीं हर साथ निभाने वाला


                                                                                       - अहमद फराज़
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Thursday, December 17, 2009

मीना कुमारी



टुकड़े-टुकड़े दिन बीता,
धज्जी-धज्जी रात मिली।


जिसका जितना आंचल था,
उतनी ही सौग़ात मिली।।


जब चाहा दिल को समझें,
हंसने की आवाज़ सुनी।


जैसे कोई कहता हो, लो
फिर तुमको अब मात मिली।।


बातें कैसी ? घातें क्या ?
चलते रहना आठ पहर।


दिल-सा साथी जब पाया,
बेचैनी भी साथ मिली।।


एक शायर

मैं तो एक कच्चा घरोंदा हूं भरी बरसात मैं

कौन  मेरा  साथ देगा  इस अंधेरी रात मैं


दिल से मौजे दर्द उठे भी तो रो सकता नहीं

दर्द  की  दीवार  हाईल है  मेरे जज़बात  मैं


काटता  जाता  रहूं  बनते जाते  हैं  हिसार

मैं बे ई जहदे मुसलसल क़ैद हूं हालात मैं


तुम सिरिशते ग़म कहो उसको के सोज़े आगाही

हम दुखों की बात करते हैं ख़ुशी की बात में


                                                                                        - सैफ़ ज़ुल्फ़ी
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मौजे दर्द -  दर्द की लहर


Tuesday, December 15, 2009

जीना है कैसे मुझको


जीना है कैसे  मुझको तन्हा  न  फैसला कर

ख़ुशियों से राय ले ले ग़म से भी मशवरा कर


दुनिया की भीड़ में मैं गुम हो के रह गया हूं

ऎ  आईने  मुझे  तू  माज़ी   ज़रा अता कर


थक कर न बैठ जाना राहों में ऎ मुसाफिर

मंज़िल तुझे मिलेगी चलने का हौसला कर


यादों के गुलिस्तां से ख़शबू सी आ रही है

क्यों  दूर  हो गये  तुम मेरे  क़रीब आ कर


कर लेना लाख कोशिश तुम भूलने की मुझको

याद  आयेंगे  तुम्हें  हम  देखो  ज़रा भुलाकर

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माज़ी - बीता हुआ कल, इतिहास

Saturday, December 12, 2009

एक शायर

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो


सिर्फ आंखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती

दिल की धड़कन को भी बीनाई बनाकर देखो


पत्थरों  में  भी  ज़बां होती है दिल  होते हैं

अपने घर की दरो-ओ-दीवार सजा कर देखो


वो सितारा है चमकने दो यूं ही उसे आंखों में

क्या  ज़रूरी  है  उसे जिस्म  बना कर  देखो


फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है

चांद  जब  चमके  ज़रा हांथ  बढ़ा कर  देखो


                                                                                   - निदा फ़ाज़ली

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बीनाई - आंखों की रौशनी

दर-ओ-दीवार - दरवाज़े और दीवारें


Thursday, December 10, 2009

एक ग़ज़ल

मेरी ज़ुबां से मेरी दास्तां सुनो तो सही

यकीं करो न करो मेहरबां सुनो तो सही


चलो ये माना कि मुजरिमे मुहब्बत हैं

हमारे जुर्म का हमसे बयां सुनो तो सही


बनोगे मेरे दोस्त तुम, दुश्मनों एक दिन

मेरे हयात की आबो गुहा सुनो तो सही


लबों को  सी के जो बैठे हैं महफ़िल में

कभी उनकी भी खामोशियां सुनो तो सही

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Wednesday, December 9, 2009

एक ग़ज़ल


ग़म रात - दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही

एक  बेवफा  से  अपनी  बड़ी  दोस्ती  रही


उनसे  मिलने की शाम  घड़ी दो  घड़ी रही

और फिर  जो रात आई तो बरसों खड़ी रही


शामे   विसाल   दर्द   ने   जाते   हुए   कहा 

कल फिर मिलेंगे दोस्त अगर ज़िन्दगी रही


बस्ती   उजड़   गई  भी  तो दरख़्त   हरे  रहे

दर बंद  हो गए  भी  तो  खिड़की  खुली रही


‘अख़्तर’  अगरचे  चारों तरफ तेज़  धूप थी

दिल  पुरख़्याले  यार की  शबनम पड़ी रही


                                                              - सईद अहमद ‘अख़्तर’
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विसाल - मिलन
पुरख़्याल - याद से भरी

Sunday, December 6, 2009

कहा न जाए


तय होंगे किस तरह से मराहिल कहा न जाए

इस  तीरगी  में  क्या  है हासिल कहा न जाए


ख़ुद  दे  दिये  हैं  मैंने  उसे  हाथ  काट  कर

वो लिख दिया है जो सैरे महफ़िल कहा न जाए


पत्थर  हुए  वो  लफ़्ज  के  थे  जीते  जागते

इस ख़ामोशी से है क्या हासिल कहा न जाए


अब तक तो चल रहे हैं तेरे साथ साथ हम

आयेगी किस जगह हदे फ़ासिल कहा न जाए


नशा है या के ज़हर है फ़िज़ा में मिला हुआ

कुछ है हर एक चीज़ में शामिल कहा न जाए


आख़िर  कहीं  तो  बैठ  गए  पांव  तोड़  कर

फिर क्या कहें अगर इसे मंज़िल कहा न जाए


ये  और  बात  कुछ  भी  दिखाई  न  दे  सके

आंखें खुली हुई हों तो ग़ाफ़िल कहा न जाए


                                                                       -शहज़ाद अहमद
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मराहिल - रुकावटें

तीरगी - अंधेरे

मुकाबिल - सामने

सैरे - तमाशे

फ़ासिल - जुदा करने वाली

फ़िज़ा - वातावरण

Saturday, December 5, 2009

एक ग़ज़ल

कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चलके

वो बदल गए अचानक मेरी ज़िन्दगी बदलके


हुए जिस पे महरबां तुम कोई ख़ुशनसीब होगा

मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आंसुओं में ढलके


तेरी ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के कुरबां दिले ज़ार ढूंढता है

वही   चम्पई   उजाले ,  वही  सुरमई   धुंधलके


कोई  फूल  बन गया है,  कोई चांद,  कोई  तारा

जो  चराग़  बुझ गये हैं तेरी  अंजुमन  में  जलके


तेरी बेझिझक हंसी से न किसी का दिल हो मैला

यह नगर है आईनों का यहां सांस लेना संभल के


                                                                            - अहसान दानिश
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हसरतें - अभिलाषाएं
रुख़ - चेहरा
दिले ज़ार - कमज़ोर दिल
अंजुमन - महफिल

Wednesday, December 2, 2009

उसके दुश्मन हैं बहुत

उसके दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा

वो भी मेरी तरह इस शहर में तन्हा होगा


इतना सच बोल कि होंठों का तबस्सुम न बुझे

रोशनी   ख़त्म   न   कर   आगे   अंधेरा   होगा


प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली

जिसको पीछे कहीं छोड़ आये वो दरिया होगा


एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक

जिसको   भी   पास   से   देखोगे अकेला होगा


मेरे   बारे   में   कोई   राय   तो होगी उसकी

उसने मुझको भी कभी तोड़ के   देखा  होगा


                                                             - निदा फ़ाज़ली
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होंठों का तबस्सुम - होंठों की मुस्कुराहट


शरीक -  शामिल

Friday, November 27, 2009

एक शायर


सफ़र    की   दर्द   भरी दास्तान रख दूंगा


मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा






ये आग शहर की गर मैं बुझा न पाया तो


दहकते    शोलों   पे अपना मकान रख दूंगा






तुझे   ज़मीन    की    तंगी   सता    न    पायेगी


मैं   तेरे   दिल   में   खुला आसमान रख दूंगा






उड़े तो आख़री कोना गगन का छू के दिखायें


कटे   परों  में   बला   की      उड़ान    रख    दूंगा






वो   एक   बार   इशारा   तो    करें    खामोशी    का


मैं    ख़ुद   काट   के    अपनी   ज़बान   रख     दूंगा




 

Thursday, November 26, 2009

एक शायर


कहीं ऎसा न हो दामन जला लो

हमारे आंसुऔं पर ख़ाक डालो


 

मनाना ही ज़रूरी है तो फिर तुम

हमें सबसे ख़फ़ा हो कर मना लो

 


बहुत रोई हुई लगती हैं आंखें

मेरी ख़ातिर ज़रा काजल लगा लो

 


अकेलेपन से खौ़फ आता है मुझको

कहां हो मेरे ख़ाबों - ख़यालों



बहुत मायूस बैठा हूं मैं तुमसे

कभी आकर मुझे हैरत में डालो ॥



                           - लियाकत अली अज़ीम

Tuesday, November 24, 2009

जब किसी से कोई गिला रखना

जब किसी से कोई गिला रखना


सामने अपने आईना रखना





यूं उजालों से वास्ता रखना


शम्मा के पास ही हवा खना





घर की तामीर चाहे जैसी हो


इसमें रोने की कुछ जगह रखना





मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये


अपने घर में भी कहीं ख़ुदा रखना





- निदा फाज़ली

Sunday, November 22, 2009

मेरे शहर के शायर..

आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा

कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा



बे- वक्त अगर जाऊंगा सब चौंक पडेंगे

मुद्दत हुई दिन में कभी घर नहीं देखा



जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है

आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा



ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं

तुमने मेरा कांटों भरा बिस्तर नहीं देखा



पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला

मैं मोम हूं उसने मुझे छू कर नहीं देखा


                                                   - बशीर बद्र
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कश्ती - नाव
मुसाफ़िर - सफ़र करने वाला
बे वक्त - असमय
मुद्दत - लंबा समय

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Saturday, November 21, 2009

हमने जुनूने इश्क में

हमने जुनूने इश्क में क्या क्या नहीं सहा

हर एक सितम सहा न कभी बे-वफा कहा



ता - उम्र तेरे साथ चले बनके हमसफर

फिर भी हर एक क़दम पर कुछ फासला रहा



तेरे सिवा किसी से मुझे वास्ता न था

मेरे सिवा सभी से तेरा वास्ता रहा



जिसका हुआ कभी तुझे एहसास तक नहीं

हमने वो दर्दे ज़िन्दगी बे - इन्तहा सहा



ऎ दोस्त तेरे दिल की कसक जानता हूं मैं

अगर मैं नहीं तो चैन से तू भी नहीं रहा



- साज़

Friday, November 20, 2009

दिल की दूआ




लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी


ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी



हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत


जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत


ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब


इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब


हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना


दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना


मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको



मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको......


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दर्दमन्दों - जो पीड़ा में हों


ज़ईफों - बुज़ुर्गों

Wednesday, November 18, 2009

दिल का रोना ठीक नहीं

दिल का रोना ठीक नहीं है,

मुंह को कलेजा आने दो

थमते थमते अश्क थमेंगे,

नासेह को समझाने दो

कहते ही कहते हाल कहेंगे,

ऐसी तुम्हें क्या जल्दी है

दिल को ठिकाने होने दो,

और आप में हमको आने दो

खु़द से गिरेबां फटते थे,

अक्सर चाक हवा में उड़ते थे

अब के जुनूं को होश नहीं है,

आई बहार तो आने दो

अगर दिल गुमगुश्ता में,

ठंडी आहें भरता था

हंस के सितमगर कहता क्या है,

बात ही क्या है जाने दो

दिल के असर को लूट लिया है,

शोख़ निगाह एक काफिर ने

कोई ना इसको रोने से रोको,

आग लगी है बुझाने दो

- असर लखनवी

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नासेह - नसीहत देने वाला

गुमगुश्ता - डूबा हूआ

सितमगर - अत्याचारी

काफिर - नास्तिक

अब ये होगा शायद

अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे

तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे

दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में

हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे

अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था

इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे

कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के

जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे

हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में

रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे

आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है

मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे

-अहमद हमदानी

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आबला-पा - पांव के छालों वाले

जानिब - तरफ

इंसान

इंसान में हैवान

यहां भी है वहां भी

अल्लाह निगेहबान

यहां भी है वहां भी

खूंखार दरिन्दो के

फ़क़त नाम हैं अलग

शहरों में बियाबान

यहां भी है वहां भी

रहमान की कुदरत हो

या भगवान की मूरत

हर खेल का मैदान

यहां भी है वहां भी

हिन्दू भी मज़े में

हैं मुसलमां भी मज़े में

इन्सान परेशान

यहां भी है वहां भी

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निदा फ़ाज़ली

Tuesday, November 17, 2009

मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

शायरे आज़म

-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।

फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥

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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता

बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता

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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को

इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ

हम कहां किस्मत आज़माने जायें

तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी

हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा

काम गर रुक गया रवां न हुआ

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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)

दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ

बहर - समन्दर

रकीब - दुश्मन, विरोधी

गिला - शिकायत

ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला

रवां - जारी, शुरू

Sunday, November 15, 2009

मेरे शहर के शायर

-: बशी़र बद्र :-

 

किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सताऊंगा

ज़माना देखेगा और मैं देख पाऊंगा

 

हयातो मौत फिराको विसाल सब यक़ज़ा

मैं एक रात में कितने दिये जलाऊंगा

 

पला बढ़ा हूं तक इन्हीं अंधेरों में

मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा

 

मेरे मिजाज़ की मादराना फितरत है

सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊंगा

 

तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो

हवा के साथ दूर दूर जाऊंगा

 

मेरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक

जहां से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊंगा

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ये चराग़ बे नज़र है सितारा बे ज़ुबां है

अभी तुम से मिलता जुलता कोई दूसरा कहां है

 

वही शख़्स जिस पे अपने दिलो जां निसार कर दूं

वो अगर ख़फ नहीं है तो ज़रूर बदगुमां है

 

मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में

वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आसमां है

 

मैं इसी गुमां में बरसों बड़ा मुत्मईन रहा

तेरा जिस्म बेतग़इयुर मेरा प्यार जाविदा है

 

उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे

मुझे रोक रोक के पूछा तेरा हमसफर कहां है

 

बेतग़इयुर - अपरिवर्तनशील

जाविदा - अमर

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