Friday, November 27, 2009

एक शायर


सफ़र    की   दर्द   भरी दास्तान रख दूंगा


मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा






ये आग शहर की गर मैं बुझा न पाया तो


दहकते    शोलों   पे अपना मकान रख दूंगा






तुझे   ज़मीन    की    तंगी   सता    न    पायेगी


मैं   तेरे   दिल   में   खुला आसमान रख दूंगा






उड़े तो आख़री कोना गगन का छू के दिखायें


कटे   परों  में   बला   की      उड़ान    रख    दूंगा






वो   एक   बार   इशारा   तो    करें    खामोशी    का


मैं    ख़ुद   काट   के    अपनी   ज़बान   रख     दूंगा




 

Thursday, November 26, 2009

एक शायर


कहीं ऎसा न हो दामन जला लो

हमारे आंसुऔं पर ख़ाक डालो


 

मनाना ही ज़रूरी है तो फिर तुम

हमें सबसे ख़फ़ा हो कर मना लो

 


बहुत रोई हुई लगती हैं आंखें

मेरी ख़ातिर ज़रा काजल लगा लो

 


अकेलेपन से खौ़फ आता है मुझको

कहां हो मेरे ख़ाबों - ख़यालों



बहुत मायूस बैठा हूं मैं तुमसे

कभी आकर मुझे हैरत में डालो ॥



                           - लियाकत अली अज़ीम

Tuesday, November 24, 2009

जब किसी से कोई गिला रखना

जब किसी से कोई गिला रखना


सामने अपने आईना रखना





यूं उजालों से वास्ता रखना


शम्मा के पास ही हवा खना





घर की तामीर चाहे जैसी हो


इसमें रोने की कुछ जगह रखना





मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये


अपने घर में भी कहीं ख़ुदा रखना





- निदा फाज़ली

Sunday, November 22, 2009

मेरे शहर के शायर..

आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा

कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा



बे- वक्त अगर जाऊंगा सब चौंक पडेंगे

मुद्दत हुई दिन में कभी घर नहीं देखा



जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है

आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा



ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं

तुमने मेरा कांटों भरा बिस्तर नहीं देखा



पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला

मैं मोम हूं उसने मुझे छू कर नहीं देखा


                                                   - बशीर बद्र
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कश्ती - नाव
मुसाफ़िर - सफ़र करने वाला
बे वक्त - असमय
मुद्दत - लंबा समय

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Saturday, November 21, 2009

हमने जुनूने इश्क में

हमने जुनूने इश्क में क्या क्या नहीं सहा

हर एक सितम सहा न कभी बे-वफा कहा



ता - उम्र तेरे साथ चले बनके हमसफर

फिर भी हर एक क़दम पर कुछ फासला रहा



तेरे सिवा किसी से मुझे वास्ता न था

मेरे सिवा सभी से तेरा वास्ता रहा



जिसका हुआ कभी तुझे एहसास तक नहीं

हमने वो दर्दे ज़िन्दगी बे - इन्तहा सहा



ऎ दोस्त तेरे दिल की कसक जानता हूं मैं

अगर मैं नहीं तो चैन से तू भी नहीं रहा



- साज़

Friday, November 20, 2009

दिल की दूआ




लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी


ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी



हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत


जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत


ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब


इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब


हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना


दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना


मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको



मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको......


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दर्दमन्दों - जो पीड़ा में हों


ज़ईफों - बुज़ुर्गों

Wednesday, November 18, 2009

दिल का रोना ठीक नहीं

दिल का रोना ठीक नहीं है,

मुंह को कलेजा आने दो

थमते थमते अश्क थमेंगे,

नासेह को समझाने दो

कहते ही कहते हाल कहेंगे,

ऐसी तुम्हें क्या जल्दी है

दिल को ठिकाने होने दो,

और आप में हमको आने दो

खु़द से गिरेबां फटते थे,

अक्सर चाक हवा में उड़ते थे

अब के जुनूं को होश नहीं है,

आई बहार तो आने दो

अगर दिल गुमगुश्ता में,

ठंडी आहें भरता था

हंस के सितमगर कहता क्या है,

बात ही क्या है जाने दो

दिल के असर को लूट लिया है,

शोख़ निगाह एक काफिर ने

कोई ना इसको रोने से रोको,

आग लगी है बुझाने दो

- असर लखनवी

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नासेह - नसीहत देने वाला

गुमगुश्ता - डूबा हूआ

सितमगर - अत्याचारी

काफिर - नास्तिक

अब ये होगा शायद

अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे

तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे

दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में

हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे

अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था

इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे

कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के

जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे

हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में

रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे

आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है

मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे

-अहमद हमदानी

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आबला-पा - पांव के छालों वाले

जानिब - तरफ

इंसान

इंसान में हैवान

यहां भी है वहां भी

अल्लाह निगेहबान

यहां भी है वहां भी

खूंखार दरिन्दो के

फ़क़त नाम हैं अलग

शहरों में बियाबान

यहां भी है वहां भी

रहमान की कुदरत हो

या भगवान की मूरत

हर खेल का मैदान

यहां भी है वहां भी

हिन्दू भी मज़े में

हैं मुसलमां भी मज़े में

इन्सान परेशान

यहां भी है वहां भी

-

निदा फ़ाज़ली

Tuesday, November 17, 2009

मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

शायरे आज़म

-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।

फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥

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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता

बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता

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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को

इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ

हम कहां किस्मत आज़माने जायें

तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी

हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा

काम गर रुक गया रवां न हुआ

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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)

दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ

बहर - समन्दर

रकीब - दुश्मन, विरोधी

गिला - शिकायत

ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला

रवां - जारी, शुरू

Sunday, November 15, 2009

मेरे शहर के शायर

-: बशी़र बद्र :-

 

किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सताऊंगा

ज़माना देखेगा और मैं देख पाऊंगा

 

हयातो मौत फिराको विसाल सब यक़ज़ा

मैं एक रात में कितने दिये जलाऊंगा

 

पला बढ़ा हूं तक इन्हीं अंधेरों में

मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा

 

मेरे मिजाज़ की मादराना फितरत है

सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊंगा

 

तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो

हवा के साथ दूर दूर जाऊंगा

 

मेरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक

जहां से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊंगा

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ये चराग़ बे नज़र है सितारा बे ज़ुबां है

अभी तुम से मिलता जुलता कोई दूसरा कहां है

 

वही शख़्स जिस पे अपने दिलो जां निसार कर दूं

वो अगर ख़फ नहीं है तो ज़रूर बदगुमां है

 

मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में

वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आसमां है

 

मैं इसी गुमां में बरसों बड़ा मुत्मईन रहा

तेरा जिस्म बेतग़इयुर मेरा प्यार जाविदा है

 

उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे

मुझे रोक रोक के पूछा तेरा हमसफर कहां है

 

बेतग़इयुर - अपरिवर्तनशील

जाविदा - अमर

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