Saturday, December 5, 2009

एक ग़ज़ल

कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चलके

वो बदल गए अचानक मेरी ज़िन्दगी बदलके


हुए जिस पे महरबां तुम कोई ख़ुशनसीब होगा

मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आंसुओं में ढलके


तेरी ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के कुरबां दिले ज़ार ढूंढता है

वही   चम्पई   उजाले ,  वही  सुरमई   धुंधलके


कोई  फूल  बन गया है,  कोई चांद,  कोई  तारा

जो  चराग़  बुझ गये हैं तेरी  अंजुमन  में  जलके


तेरी बेझिझक हंसी से न किसी का दिल हो मैला

यह नगर है आईनों का यहां सांस लेना संभल के


                                                                            - अहसान दानिश
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हसरतें - अभिलाषाएं
रुख़ - चेहरा
दिले ज़ार - कमज़ोर दिल
अंजुमन - महफिल

2 comments:

वीनस केसरी said...

सिद्दकी साहब मै नही जान्ता कि ये गजल किसने लिखी है क्योकि अहसान जी को मै जानता नही और ये भी नही पता चल पा रहा कि आप हि अहसान साहब है या कोइ और शख्स आप्कि प्रोफ़ाइल से भी कुछ समझ नही आया

गजल मुझे खास पसन्द आई बधाई कबूल करे

गजल के बारे मे अधिक जान्कारी चाहिये हो तो गजल गुरु श्री पन्कज सुबीर जी के मश्हूर ब्लोग सुबीर सवाद सेवा पर जा सक्ते है लिन्क मेरे ब्लोग से पा सकते है

आप्के ब्लोग को पढ कर अच्छा लगा

मनोज कुमार said...

बेहतरीन। बधाई।

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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।